27 मई, 2023 यानी नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल पूरे हो गए। हाल ही में एक नई किताब आई है जिसमें प्रधानमंत्री और उनके शासनकाल की ‘चौंकाने वाली अक्षमता’, गैरगंभीरता और उनके विभाजनकारी तथा कुटिल एजेंडे की ओर उंगली उठाई गई है।
दार्शनिक इमानुएल कांट का मानना है कि ‘मानवता की टेढ़ी लकड़ी से कभी कोई सीधी चीज नहीं बनाई जा सकी।’ अर्थशास्त्री और लेखक डॉ. परकाला प्रभाकर की हाल में लॉन्च हुई किताब ‘क्रूक्ड टिंबर ऑफ न्यू इंडियाः एसेज ऑन अ रिपब्लिक इन क्राइसिस’ का शीर्षक कांट की इसी बात से प्रेरित है। प्रभाकर का मानना है कि ‘न्यू इंडिया की टेढ़ी लकड़ी’ से बहुत कुछ अच्छे की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
द वायर के लिए करन थापर और फेडरल के लिए निलंजन मुखोपाध्याय को अलग-अलग दिए गए इंटरव्यू में प्रभाकर नागरिकों से आत्मविश्लेषण करने और यह सवाल करने का आह्वान करते हैं कि ‘न्यू इंडिया’ में हो क्या रहा है। वह कहते हैं कि उनका उन बीजेपी समर्थकों से कोई झगड़ा नहीं है जो सचमुच में यकीन करते हैं कि जो हो रहा है, वह देश के लिए अच्छा है। लेकिन उनके अनुभव से पता चलता है कि अधिकांश लोग मोदी सरकार का लोकहितवाद या उनके कामकाज नहीं बल्कि अधिकांशतः इसलिए समर्थन करते हैं क्योंकि ‘मोदी ने उनको सबक सिखा दिया।’ वह कहते हैं कि सोचिए, अगर जवाहरलाल नेहरू सड़कों पर निकल जाते और कुछ इसी तरह की बात कहतेः सबक सिखा दो…!
मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने के मौके पर उनके 10 आकलनः
1. दो बार भारी बहुमत, लेकिन असली बदलाव सिफर
बीजेपी को 2014 और 2019 में दो बार भारी बहुमत मिले हैं, सरकार ने कोई वास्तविक बदलाव और अंतर पड़ने वाले कदम उठाने के अवसर गंवा दिए। इसने स्वच्छ भारत (जिसकी निर्मल भारत के रूप में रीपैकेजिंग की गई), मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, जन धन योजना आदि- जैसे प्रेरक और परिवर्तनकामी कार्यक्रम शुरू किए। लेकिन आज सरकार और इसके मंत्री इनके बारे में कोई बात नहीं करते। वेबसाइट और संबंधित मंत्रालयों की अपनी रिपोर्ट उनके बारे में कोई बात नहीं करती। संसद को नहीं बताया जाता कि क्या हुआ। वस्तुतः, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ-जैसी उत्थान वाली योजना का 79 प्रतिशत फंड प्रचार और प्रशासनिक कार्यों में खर्च कर दिया जाता है। यह दिखाता है कि सरकार गंभीर नहीं है।
2. सियासी जोड़तोड़ और भावनाएं उभारने में महारत
सरकार ने प्रचार और राजनीतिक जोड़तोड़ में अपने आप को माहिर साबित किया है। समाज में अंतर्निहित दुष्ट तत्वों का उपयोग करने में उसे महारत है। समाज में कई दरारें और दोषपूर्ण तत्व हैं- धार्मिक, जाति आधारित, आर्थिक, वर्ग और लिंग-आधारित। सरकार की भूमिका इन्हें बढ़ावा देना नहीं, इन दरारों को पाटना है। लंबे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेताओं ने ब्रिटिश लोगों के खिलाफ घृणा नहीं फैलाई जबकि यह काफी आसान होता।
3. जादू-टोना करने वाले अर्थशास्त्रियों पर भरोसा
देश आर्थिक अव्यवस्था का शिकार है।, अधिकांशतः इसलिए क्योंकि उसने जादू-टोना करने वाले अर्थशास्त्रियों पर भरोसा करना चुना है! किसी दूसरे नहीं बल्कि ऐसे अर्थशास्त्रियों ने ही काला धन बाहर करने के लिए निरर्थक और विनाशकारी नोटबंदी का रास्ता चुनने की सलाह दी होगी? इसने असंगठित क्षेत्र को गंभीर क्षति पहुंचाई और 1990 की तुलना में आज अधिक भारतीय गरीबी रेखा से नीचे हैं।
वैसे, बीजेपी के पास पहले भी स्पष्ट आर्थिक दर्शन कभी नहीं था। यह अपने दर्शन के तौर पर ‘गांधीवादी समाजवाद’ की बात किया करती थी। इसने 1991-92 में उदारीकरण और बाद में खुदरा में एफडीआई का विरोध किया था। इस असंगति ने दोस्ती-यारी वाले (क्रोनी) पूंजीवाद, असमानता तथा धन के केन्द्रीकरण को बढ़ावा दिया और ग्रामीण असंतोष को बढ़ाया।
4. शिक्षित प्रोफेशनल सरकार की चापलूसी में शामिल
हालांकि बेरोजगारी उच्च स्तर पर है, खुदरा मुद्रास्फीति की दर ऊंची और पीड़ादायक है, विधायिका और न्यायपालिका दुष्क्रियाशील हैं, ‘शिक्षित ताली बजाने वाले’ सरकार की प्रशंसा कर रहे हैं। सरकार के छद्म विज्ञान का पोषण करने और प्रतिगामी विचारों को बढ़ावा देने के बावजूद इस शिक्षित वर्ग ने ‘फॉस्टियन बार्गेन’ किया है, मतलब इस किस्म की सौदेबाजी की है जैसे कोई व्यक्ति कुछ सांसारिक या भौतिक लाभ के लिए सर्वोच्च नैतिक या आध्यात्मिक महत्व-जैसे व्यक्तिगत मूल्यों या आत्मा का व्यापार करता है, और अपने कॅरियर, सुविधा और सुरक्षा के लिए अपनी आत्मा बेच दी है। वे सुजान हैं और बेहतरीन संप्रेषक हैं तथा उनका अपेक्षा से ज्यादा प्रभाव है। जब प्रधानमंत्री प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी की बात करते हैं, तब भी वे ताली बजाते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं। वे प्रभाव डालने वाले और विचार बनाने वाले हैं जिस वजह से सरकार अनापशनाप के बाद भी बच निकलती है।
5. लोकतंत्र को सिरदर्द मानती है सरकार
लोकतंत्र को खोखला कर दिया गया है। लोकतंत्र की मां या पिता को तो भूल जाइए, किस लोकतंत्र में मिनटों में और बिना विचार-विमर्श संसद के जरिये तीन कृषि कानून पारित कर दिए जाते? जब तीन कानून वापस लिए गए, तो इसमें और कम समय लिया गया। हमारी संविधान सभा में सबकुछ पर रेशा-रेशा बहस की गई, पिछले नौ साल में संसद या किसी राज्य विधानसभा में किसी विषय पर कोई अर्थपूर्ण चर्चा नहीं हुई। संसद लोकतंत्र का मंदिर है, आदि कहना अच्छा है लेकिन कोई विचार-विमर्श, जांच-परख या किसी जांच-पड़ताल से इनकार किया जा रहा है।
6. चुपके से हिन्दुत्व की एंट्री
अगर बीजेपी और मोदी हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुत्व चाहते थे, तो उन्हें विकास, गुड गवर्नेन्स और एक भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार के नाम पर 2014 में चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था। वस्तुतः, तब तक बीजेपी दावा किया करती थी कि वह एकमात्र ‘वास्तविक सेकुलर पार्टी’ है, कि सभी अन्य पार्टियां ‘छद्म निरपेक्ष’ हैं। इस तरह हिन्दुत्व का उपयोग ट्रॉजन हॉर्स की तरह किया गया और जब देश को कोई संदेह नहीं था, तब उस पर हमला किया गया। 2014 में भाषण-दर-भाषण मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि संघर्ष हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नहीं है; कि यह गरीबी और बेरोजगारी के खिलाफ हिन्दुओं और मुसलमानों- दोनों को मिलकर लड़ना है।
7. यह सरकार भी ‘अल्पमत’ सरकार
भारी जनसमर्थन के बावजूद यह सरकार भी ‘अल्पमत’ सरकार ही है जिसे 38 प्रतिशत वोट ही हासिल हैं। वस्तुतः, आजादी के बाद किसी सरकार ने कभी 50 प्रतिशत या इससे अधिक वोट नहीं हासिल किए हैं। 1984 में कांग्रेस 50 प्रतिशत मार्क के निकट आई थी लेकिन अन्य सभी सरकारें इससे कम ही रहीं। इसलिए, हम सबसे बड़े ‘अल्पमत’ दल द्वारा शासित हैं और ऐसा इसलिए है कि हम ऐसी चुनाव व्यवस्था का पालन करते हैं जिसमें सबसे अधिक मत पाने वाली पार्टी सरकार बनाती है। बहुमत के प्रतिनिधित्व का क्या है? आजादी के 75 साल बाद हमें चुनाव सुधारों तथा और प्रतिनिधित्व वाली सरकारों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। समानुपातिक प्रतिनिधित्व एक संभावित समाधान है लेकिन देश को इस बारे में सोचने की जरूरत है।
8. चुनावी लड़ाई से कहीं आगे का है संघर्ष
गैर-बीजेपी विपक्ष खतरे की प्रकृति को नापने में विफल रहा। उसने बीजेपी को उसके दिखावे पर लिया, यह मान लिया कि धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र तो बना ही रहेगा और इस पर यकीन नहीं किया कि इन मूल भावनाओं पर कोई खतरा नहीं पहुंच सकता। इसलिए, उन लोगों ने निश्चय किया कि हालांकि उनकी बीजेपी के साथ कोई सैद्धांतिक समरूपता नहीं है, अपना वोट बढ़ाने या केंद्र में एक या दो मंत्री-पद पाने के लिए उसके साथ संबंध बनाने में कोई बुराई नहीं है। उन्होंने एक या दो चुनाव में उसके साथ चलते रहने की गलती की। उन्होंने समझा कि राजनीति का मतलब चुनाव जीतना है। बीजेपी की सही प्रकृति समझने में उनकी अक्षमता (आखिरकार, एक वरिष्ठ बीजेपी पदाधिकारी ने वाजपेयी को मुखौटा कहा ही था) और उनके आत्मसंतोष ने बीजेपी को पैर जमाने दिया। यह एक और गलती होगी, अगर वह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में बीजेपी को हराना ही सिर्फ संघर्ष की परिणति है। संघर्ष भारत की आत्मा को फिर से हासिल करने का है।
9. उपलब्धि के शोर और इसके पीछे की वास्तविकता
सरकार विकास, रोजगार, व्यापार में बढ़ोतरी की बातों का बखान करती है और वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट का उदाहरण देती है कि दुनिया भर में बनने वाले स्मार्ट फोन में से 19 प्रतिशत भारत में बनाए जा रहे लेकिन सच्चाई क्या है? फॉक्सकॉन एपल फोन यहां बना रहा या स्मार्ट फोन सेक्टर अर्थव्यवस्था का मामूली, लगभग अर्थहीन हिस्सा है। वे प्रगति के वास्तविक सूचक नहीं हैं। 1990 की तुलना में ज्यादा भारतीय आज गरीबी रेखा से नीचे हैं। युवा बेरोजगारी दर ऊंची है। सरकारी विश्वविद्यालयों में अव्यवस्था है। शिक्षकों की रिक्तियों से आईआईटी, मेडिकल कॉलेज और राज्यों के विश्वविद्यालय परेशानहाल हैं और ग्रामीण संकट इतना अधिक है कि सरकार 84 करोड़ भारतीयों को ‘मुफ्त राशन’ देने की बाध्यता स्वीकार करती है। अगर भारतीयों को वाल स्ट्रीट जर्नल रिपोर्ट पर गौरव करना है, तो उन्हें भारत में असमानता पर ऑक्सफैम की रिपोर्ट भी पढ़नी चाहिए जो धन के केन्द्रीकरण का इशारा करती है। बड़ी संख्या में भारतीय गरीब हो चुके हैं। क्या सरकार इसका भी क्रेडिट लेगी?
10. बहुसंख्यवाद और लोकप्रियता
आर्थिक अव्यवस्था और कुशासन के बावजूद सरकार भारतीयों के बड़े वर्ग के बीच अब भी लोकप्रिय है, ऐसा प्रधानतः बहुसंख्यक भावना की वजह से लगता है। ‘वाइब्रेंट गुजरात’ और ‘गुजरात मॉडल’ के दावे खोखले हो चुके हैं। यह पेचीदा है कि बंटवारे के बाद बहुसंख्यकवाद, भय और असुरक्षा के लिए अधिक उर्वर आधार थे, उन्हें बैठने नहीं दिया गया। लेकिन लोगों के दिमाग में ‘उनको सबक सिखा दिया’ के लक्षण भर देना सरकार की लोकप्रियता को स्पष्ट करता है। भारतीयों को अपने आपसे यह सवाल पूछना चाहिए कि और कौन सी बात इसे स्पष्ट कर सकती है?
Source: Navjivan