मौलवी मुहम्मद बाक़िर (1780-1857) एक शिया विद्वान, भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता और दिल्ली में स्थित पत्रकार थे। वह 1857 में विद्रोह के बाद मारे जाने वाले पहले पत्रकार थे। उन्हें 16 सितंबर 1857 को गिरफ्तार किया गया और दो दिन बाद बिना किसी मुकदमे के बंदूक की गोली से उसे मार दिया गया।
खुर्शीद आलम
हम सभी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि 1857 की क्रांति की बुनियाद सिपाहियों ने ही डाली थी. वे क्रांति की शुरुआत से लेकर अंत तक रीढ़ की हड्डी भी बने रहे, इन्हीं सिपाहियों के साथ राजा-महाराजाओं का भी नाम हमारी जुबां पर आ ही जाता है.
किन्तु, इनके साथ-साथ मजदूर, किसान, ज़मीदार, पूर्व सैनिक, लेखक और पत्रकार के भी भूमिका कम नहीं रही. वह बात और है कि इनमें से कई नाम ऐसे रहे, जो गुमनामी के अँधेरे में खो गए !
मौलवी मोहम्मद बाकिर एक ऐसा ही नाम हैं.
1857 की क्रांति में सक्रिय एक ऐसे क्रांतिकारी हुए, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था.
कहते हैं उन्होंने बिना तलवार उठाए अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.
कैसे आईए जानते हैं-
सरकारी नौकरी छोड़ निकाला अपना उर्दू अख़बार!
1790 में दिल्ली के एक रसूखदार घराने में पैदा हुए, मौलवी मोहम्मद ने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से हासिल की. बाद में वह आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए ‘दिल्ली कालेज’ गए. वहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह फारसी भाषा के अध्यापक हो गए. इन नौकरी के बाद वह आयकर विभाग में तहसीलदार के पद पर नियुक्त किए गए.
इस तरह करीब 16 साल तक वह सरकारी महकमे में आला पदों पर रहे. चूंकि, सरकारी नौकरी में उनका मन लगता नहीं था, इसलिए एक दिन अचानक इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी.
आगे 1836 में प्रेस अधिनियम में संशोधन किया गया और समाचार पत्रों को निकालने की अनुमति दे दी गई, तब इन्होंने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया. 1837 में उन्होंने साप्ताहिक ‘देहली उर्दू अख़बार’ के नाम से अपना समाचार पत्र निकालना शुरू कर दिया. यह देश का दूसरा उर्दू अख़बार था, इससे पहले उर्दू भाषा में ‘जामे जहाँ नुमा’ अख़बार कलकत्ता से निकलता था.
अख़बार का मकसद व्यवसाय नहीं, बल्कि…
मौलवी मोहम्मद बाकिर का ‘देहली उर्दू अख़बार’ लगभग 21 वर्षों तक जीवित रहा, जो उर्दू पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ. इस अख़बार की मदद से मौलवी बाकिर सामाजिक मुद्दों के साथ ही लोगों को जागरूक करने का काम बखूबी अंजाम देने लगे. कहते हैं इस अख़बार का मकसद व्यवसाय करना नहीं, बल्कि यह एक मिशन के तहत काम करता था.
इसकी प्रतियों के बिकने पर जो भी पैसे आते, उन्हें मौलवी मोहम्मद बाकिर गरीबों में बाँट दिया करते थे.
इस अख़बार की कीमत मात्र 2 रूपये थी. मौलवी मोहम्मद बाकिर ने अपने अख़बार की साईज भी बड़ी कर रखी थी. इसके साथ ही इन्होंने ख़बरों में रूचि पैदा करने और उसको आसानी से पढ़ने योग्य बनाने के लिए अलग-अलग भागों में बाँट रखा था.
इस अख़बार में न्यायालय खबर के लिए ‘हुजूर-ए-वाला जबकि, कंपनी की खबर को ‘साहिब-ए-कलान बहादुर’ के तहत और भी भागों में वर्गीकृत किया गया था. इसी के साथ मौलवी मोहम्मद बाकिर उस ज़माने में भी नवीनतम समाचार प्राप्त करने के लिए भरोसेमंद नामा निगार (रिपोर्टर) से भी संपर्क बनाये रखते थे. खास उनसे, जिनकी पहुँच उच्च अधिकारियों तक थी.
दिल्ली उर्दू अख़बार राष्ट्र की भावनाओं का प्रचारक था. इसने राजनितिक चेतना को जागृत करने के साथ ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक जुट होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
आज़ादी की लड़ाई में बनाया अपना अहम हथियार
एक तरफ मौलवी मोहम्मद बाकिर अपने अख़बार के माध्यम से भारतीयों के अंदर आज़ादी का प्यार जगाने का काम कर थे. दूसरी तरफ सिपाहियों ने 1857 की क्रांति छेड़ दी. यह देखकर मौलवी साहब ज्यादा सक्रिय हो गए.
कहा जाता है कि उन्होंने कई बागी सिपाहियों को मेरठ से दिल्ली बहादुर शाह जफर तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसकी जानकारी अंग्रेजों को हुई तो उनकी नज़रों में वह चढ़ गए. उनका अखबार और उनका जीवन दांव पर लग चुका था.
बहरहाल वह डरे नहीं और डटे रहे.
अख़बार के माध्यम से मौलवी कंपनी की लूटमार और गलत नीतियों के खिलाफ खुल कर लिखने लगे. कहते है कि इस अख़बार के तीखे तेवर ने बाकी अख़बारों के संपादकों और लेखकों के अंदर आज़ादी का जोश भर दिया था. वहीं अख़बार में आज़ादी के दीवानों की घोषणा पत्रों और धर्म गुरुओं के फतवे को भी जगह दी जाती.
इसके साथ ही लोगों को इसके समर्थन के लिए अपील भी की जाती थी.
इनका अख़बार जहां एक तरफ हिन्दू सिपाहियों को अर्जुन और भीम बनने की नसीहत देता, वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम सिपाहियों को रुस्तम, चंगेज़ और हलाकू की तरह अंग्रेजों पर कहर बरपाने की बात करता था.
इसी के साथ बागी सिपाहियों को सिपाही-ए-हिंदुस्तान की संज्ञा भी देता.
अखबार का नाम बदलने से भी पीछे नहीं हटे
मौलवी मोहम्मद बाकिर हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पैरोकार थे. इन्होंने अपने अख़बार की मदद से कई बार अंग्रेजों के सांप्रदायिक तनाव को फ़ैलाने की चालों और उनके मंसूबों को जनता के सामने उजागर किया. यही नहीं सभी धर्मों के लोगों को ऐसी बातों में न उलझकर देश की आज़ादी में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की पुरज़ोर अपील की.
इस अख़बार ने 5 जुलाई 1857 के अंक में जामा मस्जिद पर चिपके एक साम्प्रदायिकता फ़ैलाने वाले पोस्टर की छानबीन करके अंग्रेजों के नापाक मंसूबों पर पानी फेर दिया था इसी के साथ ही मौलवी मोहम्मद बाकिर ने बहादुर शाह जफ़र को समर्पित करते हुए अपने अख़बार ‘देहली उर्दू अख़बार’ का नाम बदलकर अख़बार-अल-जफ़र कर दिया था.
नाम बदलने के बाद इस अख़बार से अंतिम दस प्रतियाँ और छपी.
गौरतलब हो कि मौलवी मोहम्मद बाकिर के अख़बार को अंग्रेजों से लगातार चेतावनी मिलती रही, लेकिन इन्होंने इसके बावजूद स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.
…और आज़ादी की लड़ाई में शहीद हो गए
1857 की क्रांति में कई माओं की गोद सूनी हो गई. न जाने कितनी औरतों ने अपना पति खो दिया. बावजूद इसके क्रांति की आग जलती रही, जिसको दबाने के लिए अंग्रेजों का दमन लगातार चलता रहा.
उन्होंने बादशाह बहादुर शाह ज़फर को बंदी बनाकर दिल्ली पर अपना दोबारा कब्ज़ा कर लिया. इसके बाद ब्रिटिश ताकतों ने एक-एक भारतीय सिपाहियों को ढूंढ-ढूंढ कर कालापानी, फांसी और तोपों से उड़ाने का काम करने लगी.
इसी के साथ अंग्रेजों ने 14 सितम्बर 1857 को मौलवी मोहम्मद बाकिर को भी गिरफ्तार कर लिया और इन्हें 16 सितम्बर को कैप्टन हडसन के सामने पेश किया गया. उसने मौलवी मोहम्मद बाकिर को मौत की सजा का फरमान सुनाया.
इसके तहत दिल्ली गेट के सामने मौलवी को तोप से उड़ा दिया गया.
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि इनको तोप से नहीं बल्कि फांसी दी गई थी.
तो ये थी आम जनमानस में अपनी कलम से जोश भरने वाले निर्भीक पत्रकार मौलवी मोहम्मद बाकिर से जुड़ी कुछ जानकारी.
अगर आपके पास भी उनसे जुड़े कुछ तथ्य हैं, तो नीचे दिए कमेंट बॉक्स में बताएं.