पुलिस ने जिस तरह उत्तर पूर्वी दिल्ली में हिंसा फैलने का इंतजार किया, हिंसा फैलाने में मदद की, वह केंद्र की बीजेपी सरकार के छिपे हाथ को उजागर करने के लिए काफी है। उसी पुलिस को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल क्लीनचिट दे रहे हैं, केंद्र सरकार की तारीफ कर रहे हैं।
दिल्ली हिंसा के बाद वे लोग खास तौर से छला महसूस कर रहे हैं जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के बरक्स आम आदमी पार्टी (आप) को वोट दिए थे। अपने को धोखा खाए मानने वालों में अल्पसंख्यकों का बहुत बड़ा वर्ग तो है ही, वे लोग भी हैं जो जानते-मानते रहे हैं कि बीजेपी बातों की धनी है, काम करने में उसका यकीन कम ही है।
वैसे, चुनाव के वक्त भी अल्पसंख्यकों को थोड़ा अजीब तो लग रहा था कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता सीएए, एनपीआर, एनआरसी पर अपना रुख तो स्पष्ट नहीं ही कर रहे, शाहीन बाग जाने की बात तो दूर, वहां के बारे में कुछ बोलने से परहेज ही कर रहे हैं। पर उन्हें लगता था कि आंदोलन और धरनों से जन्मी पार्टी शायद चुनावी समीकरणों की वजह से इन सबसे दूरी बनाए रख रही है।
लेकिन उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा के दौरान दिल्ली की आप सरकार ने जिस तरह चुप्पी ओढ़े रखी, उसके बाद किसी को कोई मुगालता नहीं रहा कि यह तो दूसरी पार्टी के वेश में बीजेपी ही है। रही-सही कसर तब पूरी हो गई जब केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद हिंसा पर कोई बात नहीं की बल्कि केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करने की बात कही। इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस पर कोई अंगुली नहीं उठाई और केंद्र की दबे शब्दों में तारीफ की। इससे पहले केजरीवाल सरकार ने जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देकर केंद्र सरकार और बीजेपी को खुश कर ही दिया था।
दिल्ली में स्वास्थ्य सेवाएं और फायर सर्विसेज दिल्ली सरकार के अधीन हैं। दिल्ली में स्वास्थ्य सेवाओं का चुनाव से पहले इतना प्रचार हुआ था, मानो हर जरूरतमंद के लिए स्वास्थ्य सेवाएं हाथ भर दूरी पर हैं। लेकिन दंगों के दौरान न तो हिंसा-प्रभावित इलाकों तक फायर सर्विस पहुंची ताकि घरों और दुकानों को जलने से बजाया जा सके और न ही घायलों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं ही मिलीं। 23 फरवरी को हिंसा शुरू होने के दस दिनों बाद तक भी दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री न तो घायलों से मिलने अस्पताल पहुंचे और न ही केजरीवाल ने हिंसा प्रभावित इलाकों का दौरा किया। 4 मार्च को कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने ऐसे इलाकों में जाकर लोगों के दुःख-दर्द बांटे। वैसे, मनीष सिसोदिया एक दिन पहले जरूर घूम आए हैं लेकिन शायद केजरीवाल की सोई आत्मा अब जगे।
हिंसा की आग में झुलसे इलाकों में राहत का काम जिस तरह शुरू किया गया, वह केजरीवाल की मंशा को बताने के लिए पर्याप्त है। केजरीवाल ने तीन दिनों तक दावा किया कि हिंसाग्रस्त इलाकों में राहत शिविर काम कर रहे हैं लेकिन 5 मार्च को इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने तक सिर्फ एक शिविर काम कर रहा है। मुस्तफाबाद के ईदगाह में बने इस पहले शिविर को न तो दिल्ली सरकार ने बनवाया है, न वह इसे चला रही है। यह दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन पर है, दिल्ली सरकार ने इसके लिए टेन्ट मुहैया कराए हैं लेकिन इसके लिए राशन सिविल सासाइटी एक्टिविस्ट जुटा रहे हैं जबकि खाना-पीना स्थानीय वोलंटियर बना- परोस रहे हैं। यहां कोई सरकारी डॉक्टर नहीं हैं। जो भी डॉक्टर यहां हैं, वे सबके सब निजी अस्पतालों से हैं। दिल्ली सरकार ने साफ कपड़े भी यहां उपलब्ध नहीं कराए हैं, ये सब एनजीओ और सिविल सोसाइटी के लोग मुहैया करा रहे हैं।
वैसे, पुलिस-प्रशासन ने इस इलाके में रोटी पहुंचाने के काम में भी कम रोड़े नहीं डाले- ओखला के मशहूर हकीम बावर्ची के फैसल ने 28 फरवरी को 600 किलो बिरयानी जाफराबाद इलाके में फ्री वितरण के लिए तैयार किया लेकिन प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ ने पेशकश की कि हिंसा-प्रभावित इलाके के छात्रों को जेएनयू के होस्टलों में कुछ दिन रहने की अनुमति दी जानी चाहिए और यहां रह रहे छात्रों को अपने रूम शेयर करने में दिक्कत नहीं होगी। यह सब मानवीयता के नाम पर करने का प्रस्ताव था। लेकिन जेएनयू प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी। शुक्र है कि कई संगठन बिना भेदभाव इलाके में राहत के काम में लगे हुए हैं। हां, इनके बीच आप नेता कपिल मिश्रा अब भी अलग से पहचाने जा सकते हैं जिन्होंने 71 लाख रुपये की सहायता ’सिर्फ’ हिंदू पीड़ितों को देने की घोषणा की है।
ऐसे में समझा जा सकता है कि सरकारों का रोल क्या और कितना है। इसीलिए सोशल एक्टिविस्टों- अंजलि भारद्वाज, एनी राजा, पूनम कौशिक, गीतांजलि कृष्णाऔर अमृता जौहरी की हिंसा प्रभावित इलाकों के दौरे के बाद की रिपोर्ट के इस अंश का खास महत्व हैः मुख्यमंत्री, केंद्र और दिल्ली के मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को सभी प्रभावित लोगों से तुरंत मिलना चाहिए और उनके बीच विश्वास बढ़ाने के प्रयास तुरंत करने चाहिए। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है और इलाके में घूमकर आया कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि रोटी, कपड़ा और मकान (सुकून से रहने की जगह) के अतिरिक्त सबसे ज्यादा जरूरत मेडिकल सुविधाओं की है। जो लोग घायल होकर अस्पताल पहुंच गए, उनका तो किसी तरह थोड़ा-बहुत इलाज हो भी गया, चोट खाए कई लोगों के लिए अपनी और अपने परिवार को सुरक्षित किए रखना पहली प्राथमिकता रही और उन्हें, देर से ही सही, इलाज की जरूरत है। यहां स्त्री रोग चिकित्सकों और बाल मनोविज्ञानियों की सबसे अधिक जरूरत है- महिलाओं और बच्चों पर इस तरह की हिंसा का सबसे अधिक असर होता ही है। बच्चों, खास तौर से छोटे बच्चों के लिए दूध के निःशुल्क या नाम मात्र के दाम पर वितरण की व्यवस्था करना भी अत्यंत जरूरी काम है। हिंसा आरंभ होने के दस दिनों बाद भी इस तरह के मुकम्मल इंतजाम न होना दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
यह बड़ा सवाल है कि जब यह हाल हो, तो दिल्ली हिंसा से जो लोग प्रभावित हुए हैं- चाहे वे मुसलमान हों या हिंदू, उन्हें मदद मिलेगी कहां से? वे साबित कैसे करेंगे कि उनका क्या-क्या नष्ट हो गया है क्योंकि अपनी जान बचाने के लिए वे अपने घरों में जो कुछ भी छोड़कर इधर-उधर भाग गए थे, वे सब उपद्रवियों ने जलाकर राख कर दिए। दिल्ली देश की राजधानी भले ही हो और भले ही ये लोग यहां रहते रहे हों, उनकी पीड़ा बिहार, असम, पश्चिम बंगाल में हर साल बाढ़ से पीड़ित होने वाले लाखों लोगों की तरह है जिनका पानी में हर साल अधिकतर सामान ढह-बह जाता है।
जो लोग मारे गए, घायल होकर किसी अस्पताल में गए या किसी भी वजह से गिरफ्तार हो गए, उनके पास तो उनकी पहचान के कागज हैं। लेकिन जो लोग हिंसा प्रभावित इलाके में घर-दरवाजे छोड़कर यहां-वहां भाग गए और बची हुई चीजें जला दी गईं, वे कागजात कहां से और कैसे दोबारा हासिल करेंगे। दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने बिजली मीटरों के जरिये कुछ डाटा एकत्र करने की कोशिश की क्योंकि उनमें नाम, पता वगैरह दर्ज होते हैं और सबमीटरों में किरायेदार वगैरह के विवरण भी मिल सकते हैं। लेकिन पहले दिन- 1 मार्च को अधिकतर जगह सफलता नहीं मिल पाई क्योंकि आगजनी की घटनाओं ने बिजली मीटर भी तो नष्ट कर दिए।
दिल्ली सरकार ने जिस राहत राशि की घोषणा की है, वह तो कम है ही और केजरीवाल सरकार की इसके लिए चतुर्दिक आलोचना भी हो रही है, फिर भी इस रकम को पाना आसान नहीं होगा- वजह वही कि रकम पाने का दावा करने के लिए कागजात कहां से आएंगे। लोगों की चिंता यह भी है कि सरकार जिस तरह अगले महीने से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) कराने पर अड़ी हुई है, ऐसे में वे अपने कागजात कहां से लाएंगे।
केजरीवाल अब पुलिस का क्लीन चिट तो दे रहे हैं लेकिन यह समझने की बात है कि 1 मार्च को अफवाह फैलने पर पुलिस दिल्ली में जिस तरह एक्टिव हुई, उसी तरह अगर उसने 23-24 फरवरी को अपनी सक्रियता दिखाई होती, तो हिंसा इस पैमाने पर नहीं होती।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के बड़े से लेकर छोटे स्तर तक के नेता ने राजधानी का माहौल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाला बनाने की हरसंभव कोशिश की थी। बीजेपी को चुनाव में कामयाबी नहीं मिली तो उसकी खीझ स्वाभाविक थी। फिर भी, जाफराबाद में धरना-प्रदर्शन शुरू होने के बाद से ही पुलिस ने जिस तरह हिंसा फैलने का इंतजार किया, हिंसा फैलाने में मदद की, वह केंद्र की बीजेपी सरकार के छिपे हाथ को उजागर करने के लिए काफी है।
source: NavjivanIndia