झारखंड का खजाना खाली के चहुंओर शोर पर पहले श्वेत पत्र आया, फिर भारी-भरकम बजट भी आ गया। इसमें सरकार ने कई सारी योजनाएं शुरू करने की घोषणा की है। हर वर्ग को कुछ न कुछ देने की बात हुई। हालांकि कांग्रेस के न्याय का सपना अब भी अधूरा रह गया। खाली खजाने वाली इस सरकार के बारे में पढ़ें राज्य ब्यूरो के प्रमुख संवाददाता आनंद मिश्र की खरी-खरी…
माननीय का स्वास्थ्य
झारखंड की वित्तीय स्थिति शायद उससे कहीं अधिक खराब है, जितनी बताई जा रही थी। वित्तीय मामलों के माननीय का बजट भाषण पढ़ते-पढ़ते भरभरा कर गिर जाना यही बताता है। राज्य की जनता को इससे बड़ा सबूत और क्या दिया जा सकता है। अब आर्थिक स्थिति ज्यादा खराब है कि माननीय का स्वास्थ्य, इस पर बहस बेमानी है। जो लोग 74 की उम्र में इनके स्वास्थ्य पर उंगली उठा रहे हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए। कभी राज्य की वित्त व्यवस्था का बोझ उठाया हो तो जानें। बजट के छत्तीस पन्नों का बोझ कोई कम बड़ा बोझ नहीं होता। हर पन्ना राज्य की सवा तीन करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करता है। अब अंदाजा लगा लें, कितने दबाव और कितने तनाव में थे माननीय। तो वे हांफ या थक कर बैठे नहीं थे, मौजूदा स्थिति पर मंथन को तनिक विश्राम को रुके थे।
फटा पर्चा, दिल्ली में चर्चा
शोहरत कुछ इस तरह से भी मिलती हैं, अच्छा किया तुमने … । किसी शायर की यह पंक्तियां कमल दल के युवा तुर्क पर फिट बैठती हैं। सदन में आपा खोया तो खजाने का रोना रोने वाली सरकार को पूरा वित्तीय मैनेजमेंट श्वेत पत्र फाड़कर समझा दिया। हाथ की कमान संभालने वाले एंग्री यंग मैन की याद ताजा हो चली। विदेशों से पढ़ाई की है, फायनेंस पर बहस की चुनौती भी दे दी। इधर, पर्चा फटा, उधर दिल्ली तक चर्चा पहुंच गई। खूब वाहवाही हुई। पता ही नहीं था कि ऐसे-ऐसे लाल पड़े हुए हैं। कहां, संकट में नेता आयात कर रहे थे। बताया जा रहा है कि संगठन के विस्तार के दौरान उनका खास ‘ख्याल’ रखने को कहा गया है ऊपर से। यह खबर तैरते ही बगलगीरों की पीड़ा बढ़ गई है। मेनस्ट्रीम में आ गया तो बड़ो-बड़ों के पर कतर देगा।
न चेतक, न सचेतक
पिछली सरकार से दो मुद्दों पर लगता है नई टीम ने सीख ले ली है। एक तो तेज दौडऩा (चेतक) छोड़ दिया और दूसरा सचेतक बनने को कोई तैयार नहीं दिख रहा है। शायद यही कारण है ट्विटर छोड़कर तमाम गतिविधियां धीमी रफ्तार से चल रही हैं तो सत्ता पक्ष से अभी तक सचेतक तय नहीं हो पाया है। पिछली सरकार में तेजी से दौड़ रहे प्यादों का हश्र तो सभी जानते हैं, मुख्य सचेतक को तो टिकट तक से वंचित होना पड़ा और चुनाव में उनकी रही-सही जिद को जनता ने मरोड़कर रख दिया। इन परिस्थितियों में नई सरकार में किसी को हड़बड़ी तो नहीं ही दिख रही है। हाथ वाली पार्टी के कुछ साथी जरूर दौड़ लगा रहे हैं लेकिन उन्हें अभी मौका मिलने से रहा। कहा जा रहा है कि पहले बड़े मियां का पेट भर जाए फिर छोटे की चिंता की जाएगी।
अंगूर खट्टे हैं
तीर-कमान में किसी की जुर्रत नहीं कि छोटे सरकार के खिलाफ मुंह खोल दे। ज्यादा बोलने वालों के तो मुंह कुछ ज्यादा ही बंद हो गए हैैं आजकल। कहते हैैं कि देखते जाइए आगे-आगे क्या होता है। इन्हें नहीं पता कि भविष्य की चिंता में वर्तमान पर संकट मंडरा रहा है। कहां-कहां नहीं मांगी थी मन्नत कि बन जाए सरकार तो आएंगे लड्डू चढ़ाने। अब मुराद पूरी हुई है तो कोई पूछने वाला ही नहीं बचा। नजरें इनायत तक को तरस रहे हैैं। उधर बगलबच्चे जली पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रहे। बता रहे हैैं कि आप तो राज्यसभा मैटेरियल हैैं दादा, आपको तो जाना ही चाहिए उच्च सदन। अब ये क्या नहाएं और क्या निचोड़ें। हंसकर गम गलत कर रहे हैैं। समझा भी रहे हैैं कि अभी बीती नहीं है उमर। कभी न कभी हमपर भी पड़ेगी हुजूर की नजर। बता देंगे कि कितना दम है बाजू में।
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