गुरुदत्त ‘प्यासा’ की पटकथा पर अबरार अल्वी के साथ काम कर रहे थे। अबरार का कहना था, “उन दिनों मैं और गुरुदत्त हर शाम को साथ ही घर जाया करते थे और एक ड्रिंक पर अक्सर अपने काम के बारे में बातचीत किया करते थे।
भारतीय सिनेमा में 1950 के दशक को अक्सर उसका ‘सुनहरा युग’ कहा जाता है। और इस दौर की फिल्में इसकी गवाह हैं, जैसे- राज कपूर की ‘आवारा’ (1951) और ‘श्री420’ (1955), सत्यजीत रे की ‘पथेर पांचाली’ (1955), चेतन आनंद की ‘टैक्सी ड्राइवर’ (1950), बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ (1953) और ‘देवदास’ (1955), वी. शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’। इन सभी ने अपने समय की सामाजिक चिंताओं को सामने रखा।
सन 1956 तक गुरुदत्त ने ‘बाजी’, ‘आर-पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ और ‘सीआईडी’ जैसी चार बड़ी सफल फिल्मों के निर्देशक के रूप में खुद को होनहार फिल्मकार के बतौर स्थापित कर लिया था। इन फिल्मों से प्राप्त कमर्शियल सफलता ने 31 वर्षीय गुरुदत्त के उन सभी सपनों को साकार कर दिया था जो उन्होंने कभी अपने युवा दिनों में कलकत्ता में देखे थे।
उन्होंने इस जगमगाती दुनिया की सर्वोच्च सफलता प्राप्त कर ली थी- बॉम्बे के पॉश इलाके पाली हिल में एक बंगला, सुप्रसिद्ध गायिका गीता रॉय से विवाह और बच्चे। एक निर्माता, निर्देशक और कलाकार के रूप में खुद का स्थापित और सफल फिल्म बैनर- गुरुदत्त फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड।
इन सबने आखिरकार उन्हें प्रेरित किया कि वह उस कहानी को चुनें जिसे वह बड़े स्क्रीन पर दिखाने के लिए एक दशक से इंतजार कर रहे थे, यह थी– क्लासिक ‘प्यासा’। ‘प्यासा’ उनकी व्यक्तिगत कहानी थी जो बंबई में उनके शुरुआती दिनों के संघर्ष और उनके पिता द्वारा किए गए संघर्षों से प्रेरित थी। उनके पिता का यह जीवन भर का अरमान था कि वह रचनात्मक लेखन में कुछ करें लेकिन बस वह एक क्लर्क बनकर रह गए। इसका उनके जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह सारा जीवन एक हताश और निराश व्यक्ति बनकर रह गए। गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी का कहना था, “ हां, ‘प्यासा’ की कहानी मेरे पिता से प्रेरित है। मेरे पिता बहुत ही पढ़े-लिखे और रचनात्मक व्यक्ति थे… गुरु ने ये गुण हमारे पिता से ही पाए।”
गुरुदत्त ने यह कहानी 1947 के आसपास ही लिख ली थी। यह वह समय था जब भारत ने आजादी तो प्राप्तकर ली थी लेकिन बंटवारे के बाद देश खून-खराबे से जूझ रहा था। 22 वर्षीय गुरुदत्त बंबई में अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहने के लिए आए। जहां उन्होंने एक छोटा-सा फ्लैट किराए पर लिया और दो जून की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष करने लगे। उस समय तक उन्होंने यह समझ लिया था कि एक रचनात्मक व्यक्ति के लिए फिल्मइंडस्ट्री की गला-काट संस्कृति में टिकना और अपने लिए स्थान बनाना कितना मुश्किल है। वह बहुत सारे फिल्म निर्माताओं के दरवाजे पर गए लेकिन उन्हें करीब एक साल तक कोई काम नहीं मिला। उसी मानसिक स्थिति में उन्होंने ‘कशमकश’ की कहानी लिखी जो एक कलाकार के गुस्से, हताशा और निराशा की कहानी है। दस वर्ष बाद कथानक में कुछ महत्वपूर्ण बदलावों के बाद वह ‘प्यासा’ की कहानी बन गई।
गुरुदत्त ‘प्यासा’ की पटकथा पर अबरार अल्वी के साथ काम कर रहे थे। अबरार का कहना था, “उन दिनों मैं और गुरुदत्त हर शाम को साथ ही घर जाया करते थे और एक ड्रिंक पर अक्सर अपने काम के बारे में बातचीत किया करते थे। हमने ‘सीआईडी’ से शुरुआत की और फिर ‘प्यासा’ का फिल्मीकरण ही हमारा जीवन बन गया। और उन लंबी शामों का फल यही था कि मैंने गुरुदत्त से सिनेमैटिक अभिव्यक्ति और तकनीक के विषय में बहुत कुछ सीखा। वह एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें सिनेमा का जुनून था।”
वह जुनून उनकी नई-नई सफलता के साथ और भी परवान चढ़ता गया। अब गुरुदत्त के पास पैसा भी था और ख्याति भी। अब वह चाहते थे कि उनकी पहचान एक अलग तरह के फिल्मकार के रूप में हो।
एक मुख्य अभिनेता के रूप में दो हिट फिल्में देने के बाद वह अपने बैनर से बाहर एक हीरो के रूप में अन्य फिल्मों में भी काम करने का विकल्प चुन सकते थे। शायद यह ज्यादा आसान और सुविधाजनक करिअर का विकल्प होता। लेकिन उनकी यह दिली गहरी इच्छा थी कि वह फिल्में बनाएं – कलात्मक फिल्में।
लेकिन एक कंपनी चलाने का मतलब है कि बहुत बड़ी राशि खर्च करना और नियमित तौर पर पैसे की आवाजाही बनाए रखना ताकि तनख्वाहें दी जा सकें और रख-रखाब किया जा सके। जहां तक स्टोरी आइडिया, गीतों की सिचुएशन तथा स्क्रीन पर मनोहर क्षणों को पैदा करने की बाद थी तो एक रचनात्मक व्यक्ति के रूप में गुरुदत्त के लिए यह सब रुचिकर था लेकिन स्टूडियो के बॉस के नाते यह आवश्यक था कि वह अपनी कंपनी के प्रबंधन और आर्थिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें।
वह अपने स्टाफ के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते थे। बहुत सारे परिवार अपनी जीविका के लिए उन पर निर्भर थे। इसलिए, यह महत्वपूर्ण था कि उनकी कंपनी ज्यादा से ज्यादा सफल फिल्मों का निर्माण करे। जब कोई फिल्म सफल हो जाती थी तो बोनस भी मिलता था। उनके साथ काम करने वाले लोग उनके इस दयालु भाव का बहुत सम्मान करते थे। उनके आचरण में एक विशिष्ट प्रकार की सज्जनता थी।
गुरुदत्त को याद करते हुए गुरुदत्त प्रोडक्शन्स के कंट्रोलर और मित्र गुरु स्वामी बताते हैं कि “एक बार एक कलाकार जिसे बहुत सारे अवसरों पर हर प्रकार की मदद दी गई थी- चाहे वह आर्थिक हो या किसी और प्रकार की, अब काफी परेशान करने लगा था। मैंने एक बार उसे हाड़े हाथों लिया और उसे याद दिलाया कि हमने कितनी बार और कितने ही प्रकार से उसकी मदद की है। बाद में गुरुदत्त ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया और कहा कि कभी भी किसी की मदद का उल्लेख नहीं करना चाहिए। इससे मानवीय सम्मान को ठेस पहुंचती है।”
वह अपने स्टाफ के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते थे। बहुत सारे परिवार अपनी जीविका के लिए उन पर निर्भर थे। इसलिए, यह महत्वपूर्ण था कि उनकी कंपनी ज्यादा से ज्यादा सफल फिल्मों का निर्माण करे। जब कोई फिल्म सफल हो जाती थी तो बोनस भी मिलता था। उनके साथ काम करने वाले लोग उनके इस दयालु भाव का बहुत सम्मान करते थे। उनके आचरण में एक विशिष्ट प्रकार की सज्जनता थी।
गुरुदत्त को याद करते हुए गुरुदत्त प्रोडक्शन्स के कंट्रोलर और मित्र गुरु स्वामी बताते हैं कि “एक बार एक कलाकार जिसे बहुत सारे अवसरों पर हर प्रकार की मदद दी गई थी- चाहे वह आर्थिक हो या किसी और प्रकार की, अब काफी परेशान करने लगा था। मैंने एक बार उसे हाड़े हाथों लिया और उसे याद दिलाया कि हमने कितनी बार और कितने ही प्रकार से उसकी मदद की है। बाद में गुरुदत्त ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया और कहा कि कभी भी किसी की मदद का उल्लेख नहीं करना चाहिए। इससे मानवीय सम्मान को ठेस पहुंचती है।”
लेकिन जहां एक तरफ यह असंभव था कि गुरुदत्त हर रोज शूटिंग करें, वहीं यह भी महत्वपूर्ण था कि उनके स्टाफ के पास नियमित रूप से करने के लिए काम हो, चाहे गुरुदत्त अपनी अगली फिल्म की योजना बनाने में व्यस्त हों। और इसके लिए जरूरी था कि कंपनी नियमित रूप से फिल्में बनाती रहे, चाहे इसके लिए उसे निर्देशक बाहर से ही लेने पड़ें। और यह भी बहुत जरूरी था कि कंपनी कमर्शियल रूप से सफल फिल्में पहले बनाए और बाद में ‘प्यासा’ जैसे कलात्मक ड्रीम प्रोजेक्ट में निवेश करे। इसलिए गुरुदत्त ने फैसला किया कि वह एक सीधे-साधे से नियम का पालन करेंगे: कि उनकी कंपनी में हर कमर्शियल रूप से सफल फिल्म के बाद ‘एक जोखिम से भरी और कलात्मक फिल्म’ बनाई जाएगी। गुरुदत्त के लिए कमर्शियल सफलता का बहुत महत्व था।
जब गुरुदत्त की ‘सीआईडी’ बन ही रही थी तो उन्होंने ‘प्यासा’ के कुछ अंश शूट करने शुरू भी कर दिए थे। उन्होंने तीन रील तक की फिल्म बना ली थी लेकिन वह संतुष्टन हीं थे। इसलिए उन्होंने पूरे फुटेज को ही नष्ट कर दिया और फैसला किया कि वह दोबारा शूट करेंगे। इस तरह से अंततः ‘प्यासा’ फिल्म बनने लगी। अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के साथ गुरुदत्त शायद एक कलात्मक सटीकता के कभी न तृप्त होने वाली राह पर चल पड़े थे– जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने अपना वह हर सपना बिखेर दिया जो उनके दिल के करीब था।
(यासिर उस्मान की पुस्तक ‘गुरुदत्त– अनफिनिश्ड स्टोरी’ का एक अंश)